सोमवार, 29 अगस्त 2011

बीटी बैंगन से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को खतरा


बीटी बैंगन को लेकर लंबे समय से बहस चल रही है और सरकार और समाज में काफी जंग छिड़ चुकी है। वैज्ञानिक और जानकार इसे मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए बेहद खतरनाक मान रहे हैं और इसी वजह से इसका व्यापक विरोध होता रहा है। देश में इसे अपनाने को लेकर सरकार पर विदेशी कंपनियों की तरफ से काफी दबाव पड़ा। दूसरी ओर देश के भीतर भी इस बैंगन के खिलाफ सरकार पर भारी दबाव बनाया गया। इसी कड़ी में देशभर में व्यापक विरोध प्रदर्शन भी आयोजित किए गए। आखिरकार सरकार ने फिलहाल इसे मंजूरी देने से इंकार कर दिया।

इस संदर्भ में यह जानना जरूरी है कि आखिर यह बीटी बैंगन है किस बला का नाम? दिखने में तो यह साधारण बैंगन जैसा ही होगा। फर्क इसकी बुनियादी बनावट में है। इस बैंगन की, उसके पौधे की, हर कोशिका में एक खास तरह का जहर पैदा करने वाला जीन होगा, जिसे बीटी यानी बेसिलस थिरूंजेनेसिस नामक एक बैक्टेरिया से निकालकर बैंगन की कोशिका में प्रवेश करा दिया गया है। इस जीन को, तत्व को पूरे पौधे में प्रवेश करा देने की सारी प्रक्रिया बहुत ही पेचीदी और बेहद महंगी है। इसी प्रौद्योगिकी को जेनेटिक इंजीनियरिंग का नाम दिया गया है।

हमारे देश में बैंगन का ऐसा क्या अकाल पड़ा है जो इतनी महंगी तकनीकी से बने बीजों के लिए यहां ऐसे विचित्र प्रयोग चलते रहे? पहले इसका इतिहास देख लें। मध्यप्रदेश के जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय के खेतों में बीटी बैंगन की प्रयोगात्मक फसलें ली गई थीं। इस बात की जांच की गई कि इसे खाने से कितने कीड़े मरते हैं।

जांच से पता चलता कि बैंगन में प्राय: लग सकने वाले 70 प्रतिशत कीट इस बैंगन में मरते हैं। इसे ही सकारात्मक नतीजा माना गया। अब बस इतना ही पता करना शेष था कि इस बीटी बैंगन को खाने से मनुष्य पर क्या असर पड़ेगा? प्राणियों पर भी इसके प्रभाव का अधकचरा अध्ययन हुआ है। ऐसे तथ्य सामने आए हैं कि बीटी बैंगन खाने वाले चूहों के फेफड़ों में सूजन, अमाशय में रक्तस्राव, संतानों की मृत्युदर में वृद्धि जैसे बुरे प्रभाव देखे गए हैं।

इसलिए यह बात समझ से परे है कि जब चूहों पर भी बीटी बैंगन के प्रभाव का पूरा अध्ययन नहीं हुआ है तो उसे खेत और बाजार में उतारने की स्वीकृति देने की जल्दी क्या थी। वह भी तब जब इस विषय को देख रही समिति के भीतर ही मतभेद थे।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस समिति में रखे गए स्वतंत्र विशेषज्ञ माइक्रोबायोलॉजिस्ट डॉ. पुष्प भार्गव का कहना था कि स्वीकृति से पूर्व आवश्यक माने गए जैव सुरक्षा परीक्षणों में से अधिकांश को तो छोड़ ही दिया गया है। शायद अमेरिका की तरह हमारी सरकार की भी नीति है कि नियमन पर ज्यादा जोर न दिया जाए। वरना विज्ञान और तकनीक का विकास रुक जाएगा।

यह मंत्र बीज कंपनी मोनसेंटो ने दो दशक पूर्व तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश सीनियर को दिया था और उन्होंने उसे मान भी लिया था। तभी से उनकी नियामक संस्था एफडीए अपने भीतर के वैज्ञानिकों की सलाह के विपरीत अमेरिका में इस विवाद भरी तकनीक से बने मक्का, सोया आदि बीजों को स्वीकृति देते जा रही है और इन बीजों को खेत में बोया जा चुका है। अब अमेरिका के लोग इसकी कीमत चुकाने जा रहे हैं।

अमेरिकन एकेडमी ऑफ एनवायर्नमेंट मेडिसिन (एएइएस) का कहना है कि जीएम खाद्य स्वास्थ्य के लिए एक गंभीर खतरा है। विषाक्तता, एलर्जी और प्रतिरक्षण, प्रजनन, स्वास्थ्य, चय-अपचय, पचाने की क्रियाओं पर तथा शरीर और अनुवांशिक मामलों में इन बीजों से उगी फसलें, उनसे बनी खाने-पीने की चीजें भयानक ही होंगी।

हमारे देश में इस विचित्र तकनीक से बने कपास के बीच बोए जा चुके हैं। ऐसे खेतों में काम करने वालों में एलर्जी होना आम बात है। यदि पशु ऐसे खेत में चरते हैं तो उनके मरने की आशंका बढ़ती है। भैंसे बीटी बिनौले की चरी खाकर बीमार पड़ी हैं। उनकी चमड़ी खराब हो जाती है व दूध कम हो जाता है। भैंस बीटी बिनौले की खली नहीं खाना चाहती। यूरोप और अमेरिका से खबरें हैं कि मुर्गियां, चूहे, सुअर, बकरी, गाय व कई अन्य पशु जीएम मक्का और अन्य जीएम पदार्थ खाना ही नहीं चाहते। पर हम इन्सानों की दुर्गति तो देखिए जरा।

हमें बताया जा रहा है कि यदि विकास चाहिए तो किसान को बीटी बैंगन के बीज खरीदने के लिए तैयार होना होगा और इसी तरह हम ग्राहकों को भी, उपभोक्ताओं को भी बीटी बैंगन खरीदकर पकाने, खाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए! उनका कहना है कि इससे कोई नुकसान होने की, एलर्जी होने की बात अभी सिद्ध नहीं हुई है। होगी तो हम हैं न। नियंत्रण कर लेंगे। अरे भाई, आखिर दवा उद्योग का भी तो विकास होना चाहिए।

इन पौधों से जमीन, खेत, जल जहरीला होता है, तितली, केंचुए कम होते हैं तो उन समस्याओं से निबटने के लिए कृषि विज्ञान का और विकास होगा, बॉयोटेकनोलॉजी में सीधा विदेशी निवेश और बढ़ेगा। हम इसी तरह तो विकसित होते जाएंगे!

बीटी कपास के खेत के नजदीक यदि देशी कपास बोएं तो उसके फल मुरझा जाते हैं। ऐसा ही बैंगन के साथ भी हो सकता है। प्रकृति और किसानों ने हजारों साल में हजारों किस्म के बैंगन विकसित किए हैं, वह सारा खजाना जीएम बैंगन के फैलने से खत्म हो सकता है। साथ ही उनके औषधि गुण खत्म हो सकते हैं। खुद जीएम बैंगन की अगली पीढ़ियों में पता नहीं कौन से प्रोटीन बनेंगे और उनकी विषाक्तता और एलर्जी पैदा करने वाली ताकत, क्रिया क्या होगी? एक चिंता यह है कि अगर बीटी बैंगन बाजार में आया तो हम पहचानेंगे कैसे कि यह जीएम वाला बैंगन क्या है? आज भी किसानों को गलत और मिलावटी बीज बेचे जाते हैं। उन्हें तीन महीने बात ही पता चलता है कि वे ठगे गए हैं।

जीएम बीज तो बोतल का जिन्न है। बाहर निकलेगा तो दुनिया में फैलता ही जाएगा। वैसे जीएम के पर्यावरणीय प्रभाव स्थाई होते हैं। बीटी बैंगन को सन 2004 में ही करीब-करीब स्वीकृति मिल चुकी थी। परंतु फिर तरह-तरह के विरोधों के कारण इसकी समीक्षा करना तय हुआ। 14 अक्टूबर, 2009 को जेनेटिक इंजिनियरिंग अप्रूवल कमेटी (जीईएसी) ने उसे स्वीकृति दे दी।

वन और पर्यावरण मंत्रलय के मंत्री जयराम रमेश इस विषय पर विभिन्न लोगों, विशेषज्ञों, संस्थाओं और सभी राज्य सरकारों की राय मांग रहे हैं। वे खुद भी जून महीने में कह चुके हैं कि मैं जीएम खाद्य के खिलाफ हूं। केरल और उड़ीसा की सरकारें अपने राज्यों को जीएम मुक्त रखना चाहती हैं। इनके अलावा छत्तीसगढ़ सरकार भी बीटी बैंगन का विरोध कर चुकी है। मध्य प्रदेश सरकार ने भी बीटी बैंगन को अपने राज्य के खेतों में बोने की अनुमति देने से इंकार कर दिया है।

इस प्रश्न का उत्तर भी खोजना होगा कि यदि एक प्रांत जीएम फसलें उगाएगा तो दूसरा प्रांत जीएम मुक्त कैसे रह पाएगा। जयराम रमेश ने जीइएसी की स्वीकृति पर अंतिम निर्णय फरवरी 2010 तक लेने की घोषणा की है। यानी इस बारे में चिंता करने वालों के पास थोड़ा वक्त बाकी है, केन्द्र सरकार को अपनी राय से प्रभावित करने के लिए। लेकिन इन जहरीले बीजों को बनाने वाली कंपनियां तो अभी से बीटी बैंगन की खेती शुरू करने की तैयारियां कर रही हैं।

बीटी बैंगन को नकारने का मध्यप्रदेश का फैसला विज्ञान और प्रौद्योगिकी नीति 2007 के अनुरूप है। इस नीति में कहा गया है, जीनान्तरित पदार्थ को राज्य में प्रवेश की अनुमति तभी दी जाएगी जब उनकी पर्यावरणीय सुरक्षा पक्की हो जाएगी। राज्य इसके लिए समुचित संस्थागत व्यवस्था का प्रबंध करेगा।

इस नीतिपत्र में खाद्यान्न तथा कृषि उत्पादन के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को पूरा करने के लिए जैविक खेती को केन्द्रीय भूमिका में लाने की घोषणा भी की है। लेकिन इसी राज्य के शहर जबलपुर में बीटी बैंगन, और जीएम मक्का पर अनुसंधान भी हो रहा है। इसमें मध्यप्रदेश का क्या हित है और राज्य सरकार की इसमें क्या भूमिका है, यह भी स्पष्ट होना चाहिए। प्रदेश के कृषि मंत्री जब इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके हैं कि जीएम बीजों से देश की पारंपरिक खेती नष्ट हो जाएगी और किसान गुलाम बन जाएंगे तो इन अनुसंधानों को जारी रखने का क्या औचित्य है? मात्र खरपतवार की समाप्ति के लिए जीएम फसलों की कोई जरूरत नहीं है।

मध्यप्रदेश की नीति है जैव पदार्थो की पूंजी से विशाल पैमाने पर जैविक खेती। इस लक्ष्य की विशालता को देखते हुए बीटी बैंगन को नकारना एक छोटा परंतु अच्छा कदम है। इसके आगे जीएम मुक्त, कीटनाशक मुक्त और रासायनिक खाद से मुक्त कृषि का कठिन सफर अभी तो बाकी है।

पिछले चार साल में दुनिया भर के 400 कृषि वैज्ञानिकों ने मिलकर एक आकलन किया है। इसे विकास के लिए कृषि विज्ञान और तकनीकी का अंतर्राष्ट्रीय आकलन माना गया है। उनका निष्कर्ष है कि समाधान जेनेटिक इंजीनियरिंग या नेनो टेक्नॉलाजी जैसे उच्च प्रौद्योगिकी में नहीं है। समाधान तो मिलेगा छोटे पैमाने पर, पर्यावरण की दृष्टि से ठीक खेती में। इस तरह की खेती का मुख्य आधार होगा- स्थानीय खाद्य व्यवस्था, कृषि व्यापार नियमों में सुधार, सहारा देनेवाली नीतियों का सुंदर सहयोगी माहौल और खेती में स्त्री-पुरुष की समान सम्मानजनक भागीदारी।
अमरीकी बहुराष्ट्रीय कंपनी मोन्सेंटो और उसकी भारतीय साझीदार कंपनी महाइको बीटी बैंगन की खेतीबाड़ी व्यावसायिक पैमाने पर करने के लिए भारी दबाव डाल रही हैं क्योंकि इन कंपनियों ने भारतीय कृषि वातावरण के लिए उपयुक्त बीज पहले ही तैयार कर लिया है.

लेकिन किसानों के संगठन और पर्यावरणवादियों के गुट बीटी बैंगन और जैविक रूप से संशोधित अन्य फ़सलों की व्यावसायिक पैदावार का घोर विरोध कर रहे हैं क्योंकि वे भारत में खेतीबाड़ी और पर्यावरण पर लंबी अवधि में इसके प्रभावों को लेकर चिंतित हैं.
ग़ौरतलब है कि यूरोप में जैविक रूप से संशोधित चीज़ों की खेतीबाड़ी को प्रतिबंधित कर दिया है और इसी से प्रेरित होकर भारत में भी किसान और पर्यावरणविद जैविक रूप से संशोधित चीज़ों की पैदावार का विरोध कर रहे हैं.
बहरहाल, नई तकनीक हमारे बैंगन को तो बेगुण बना ही देगी, वह हमारी खेती में न जाने कितने औगुन भी बो बैठेगी।

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